श्वान और हिन्दु विचार
श्वान (कुत्ता, कुकुर) हिन्दु धर्म में अशुद्ध माना गया है । इसे शुभ कार्यों से दूर रक्खा जाता है । श्वान का रोना अशुभ माना जाता है । कुछ स्थानों मे तो श्वान का दर्शन भी शुभ नही माना जाता । ऐसा क्यों ? जबकी श्वान तो बहुत ही प्यार देने वाला, आदेश मानने वाला, हर हालत मे मोहने वाला जानवर है । वेद मे भी श्वान को रक्षक ही माना गया है पर शुभ नही ।
श्वान को मौत का प्रतिबिंब माना गया है
इसिलिये यह यमराज के साथ है । यह जंगली है और सभ्यता से दूर है इसिलिये यह योगी
दत्तात्र्य के पीछे-पीछे जंगल मे घूमता है ।
महाभारत
मे महारज युधिष्ठिर को इसिलिये स्वर्ग मे प्रवेश नही मिला क्योंकी वह श्वान को भी प्रवेश
देना चाहते थे ।
महादेव के उग्र रूप भैरव का भी वाहन श्वान
ही है पर सोम्य रूप मे नही ।
तो क्या कारण है की हिन्दु योगियों
ने श्वान को शुभ नही माना ।
अगर हम हिन्दु धर्म को गहराई से देखे तो समझेंगे की हिन्दु धर्म मे बहुत कुछ सांकेतिक भाषा में कहा गया है । यह एक
तरीका है अपनी बात समझाने का । आये समझते है की श्वान को अशुभ कहने के पीछे क्या सोच
हो सकती है ।
श्वान तो खुद एक सोच है ।
शायद आपने एक कहानी सुनी होगी जिसमें
एक योगी अपने तोते से बेहद प्रेम करते थे । अंतिम समय भी वह उसी तोते को निहार रहे
थे जिसके फ़लस्वरूप अपने अगले जन्म में वह एक तोते की योनी मे प्रवेश कर गये। उनका सारा
तप धरा ही रह गया । वह फ़िर जन्म – म्रित्यु के अंतहीन चक्र
में फ़ंस गये ।
यानी
लगाव एक जाल है ।
अब श्वान को देखे , कौन उससे प्रेम नही करेगा । उसका अपने प्रति लगाव देंखे । जरा सा उसपर ध्यान
दें तो वह प्यार से पूंछ हिलायेगा । उसका निस्वार्थ प्रेम किसी का भी दिल मोह ले। जिसके
पास श्वान है वह इस बात को समझेगा । अब एक योगी की कल्पना करे जो वन मे श्वान के साथ
है । उसका सारा ध्यान तो श्वान के प्रेम मे चला जायेगा । श्वान तो अपने मालिक का सबसे
बडा प्रेमी है । इस मोह से योगी कैसे बचेगा। क्या वह फ़िर से माया के अंतहीन चक्रों
नही उलझ जायेगा ? यह सोच श्वान को दूर रखने की एक वजह है ।
गुरू दत्तात्र्य के पीछे चार श्वान
चलते है । यह इस बात का प्रतीक है की गुरू दत्तात्र्य सब कुछ त्याग चुके है और वह श्वान
के आगे चलते है और श्वान उनका अनुसरण करते है । ऐसा कुछ नही जिसका मोह गुरू को है ।
अब हम देखे की श्वान को अशुभ मानने
के लिये दूसरी सोच क्या है ।
श्वान क्षेत्रवाद का प्रतीक है । हर
श्वान का अपना एक क्षेत्र है । उस क्षेत्र का वह मालिक है । उसके लिये तो उसका मालिक
भी एक क्षेत्र है जिसका मालिक वह खुद है । श्वान इसे किसी के साथ भी नही बांटना चाहता
। अपने क्षेत्र को वह बार बार मूत्र कर के चिन्न्हत करता है । अगर कोई उस के क्षेत्र
में अतिक्रमण करे तो वह भोंकेगा या फ़िर काट भी सकता है । इसी प्रकार मानव भी एक क्षेत्रवादी
जीव है । अपना गांव ,शहर ,धर्म,
जाती, देश इत्यादी । अपनी जमीन , पूंजी , स्त्री इत्यादी का मालिक । अगर कोई उसके इस क्षेत्र
मे अतिक्रमण करे तो वह भोंकेगा, ………….काट भी सकता है । उसके मन
मे भय है श्वान की तरह ।
जिसने इस भय में विजय करी वह भैरव
। उसका स्थान श्वान के ऊपर । यानी की वह श्वान की सवारी करेगा । इसीलिये भैरव का वाहन
श्वान है । इसका मतलब यह नही की भैरव जी श्वान की सवारी ही करेंगे, बल्की संकेत मे वह श्वान की सोच के ऊपर है । श्वान की सोच उनके नीचे । यही
दूसरा कारण है जो श्वान को अशुद्ध बनाता है ।
इन्सान धन में , शरीर में , अपनी समझ में और भावना में एक क्षेत्र बना
लेता है । ईर्ष्या वश अपनी इन दौलतों की रक्षा करता है , एक भय
मन मे पालता है इनसे बिछुडने का , क्या वह किसी श्वान के हड्डी
प्रेम से कम है । यही करता रहता है अपनी मौत तक । यानी श्वान साथी है यमराज की दहलीज
तक का । इसीलिये यम राज भी श्वान के साथ दिखाई जाते है । भैरव हंसते है यह सब देख कर
क्योकी वह श्वान सोच से ऊपर है । श्वान का रोना एक डर मन मे पैदा करता है की कहीं यम
तो नही आ गये ।
हिन्दू
धर्म इस सोच का विरोधी है और यह सोच श्वान सोच है । इसिलिये श्वान अप्रिय है । सोच
ना की श्वान । ध्यान दें
आदेश आदेश
गुरू गोरक्षनाथ जी को आदेश
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