निषाद
निषाद
जाती के उद्गयम के बारे में अनेकों मान्यतायें है । कुछ मान्यताओं के अनुसार निषाद एक अत्यन्त प्राचीन शूद्र जाति थी। इस जाति के लोग समुद्र के मध्य दूर सुदूर क्षेत्र में रहते थे। ये
मत्स्य जीवी थे। यह प्राचीन जाति पर्वत, घाटियों और वनांचलों तथा नदियों के तटों पर भी
निवास करती थी। निषादों को क्षत्रियों की भार्याओं से उत्पन्न शूद्र पुत्र माना गया।
फिर वनवासी जातियों के मिश्रण से निषाद पैदा होते रहे।
कुछ
अन्य मान्यताओं के अनुसार निषाद व सिन्धुघाटी की
सभ्यता विश्व मे सबसे प्रमुख तीन सभ्यताओ को माना जाता है । मोहे जोदडो सिन्ध के लड़काना
जिले मे डा. मुखर्जी के अनुसार सिन्धु सभ्यता के निर्माता आद्य -निषाद है | आद्य निषाद जति के लोग भारतीय
महाद्वीप के निवासी थे। ऋग्वेद के अनुसार सैन्धव सभ्यता का केन्द्र पश्चिम मे जहां
पंजाब मे पंचजन लोगो का निवास था माना गया है 'ये पंचजन'
और कोई नही है यह निषाद जन ही उस समय पंचजन कहे जाते थे |
आदि कवि महर्षि
वाल्मिकी, विश्व गुरु वेदव्यास, धृतराष्ट्र, पांडु
और विदुर की दादी सत्यवती ,भक्त
प्रहलाद, हिरन्यकश्यप, रामसखा
महाराज गुहयराज निषाद, राजकुमार एकलव्य इत्यादि महान
आत्माओं ने इस वंश को सुशोभित किया है |
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त्रिग्वेदिक काल तक निषाद सभयता संपूर्ण भारत में विधमान थी|.निषाद या तो पंचजन कहे जाते थे
अथवा निषाद | कुछ विद्वानों का मत है की चार वर्ण अन्य जतियॉ
तथा पाँचवे वर्ण निषाद है |
महाभारत
काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर
राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़
राजधानी थी। एक मान्यता अनुसार वे श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था जिसे उन्होंने
निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था।
(हिरण्यधनु निषादों का राजा था, कालेयों
में तृतीय उसने इस जन्म में पुनर्जन्म लिया था)
उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के समान ही थी। निषादराज हिरण्यधनु और
उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि)
परिषद की सहायता से करता था।
निषादराज
हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के पुत्र हुए अभिद्युम्न। राजपुत्र अभिद्युम्न (जिनका लोकप्रिय नाम अभय भी था) की पांच वर्ष की आयु में एक कुलीय गुरुकुल में उनकी शिक्षा व्यवस्था की
गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे। बालपन
से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और
एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम 'एकलव्य'
रख दिया था।
ऐसा माना
जाता है की नवजात एकलव्य को नारायणी देवी ने निषादराज हिरण्यधनु को सौंपा था और एकलव्य
को भूमी देवी का वरदान प्राप्त था । इसी वरदान ने एकलव्य को विषेश बना दिया ।
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बालक
एकलव्य की इसी लगन की भनक मुनी पलक को लगी तो वह उसे देखने पहुंचे । बालक की प्रतिभा
देख कर वह विस्मित हो गये और उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि
उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए।
हम महाभरत काल के उस समय की बात कर रहे
है जब गुरु द्रोण दरिद्रता से परेशान हो कर कुरु राजकुमारों को अपना शिष्य स्विकार
करते है और सिर्फ़ कुरु राजकुमारों के गुरू बनने के लिये मान जाते है । इसके बदले
मे कुरु महाराज उन्हे सम्मान और धन देते है । दरसल सारी महाभारत का संपूर्ण
प्रपंच श्रीकृष्ण की इच्छा से संचालित होता है। महाभारत की कोई भी घटना सयोंग या
नियती नही है । सभी घटनायें श्री कृष्ण की माया का ही खेल है । सारे व्यक्तित्व श्रीकृष्ण की इस माया के मोहरे बने , और उन्ही
की योजना के अनुसार सभी ने अपनी पात्रता निभाई । इसी माया में गुरु द्रोण को भी मोहरा
बनना पडा।
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पलक
मुनी की बात मान कर राजा हिरण्यधनु अपने पुत्र को गुरु द्रोण के पास ले जाते है । गुरु
द्रोण तो वचन बद्ध थे, अपने
उस वचन को, जो उन्होने भिष्म पितामह को दिया था कि वह कुरु राजकुमारों
के अलावा किसि और को धनुर्विद्या नही सिखायंगे ।
विवश गुरु उन्हे मना कर देतें हैं । पर राजकुमार उनसे विनती करता
है कि उसे वापस ना भेजा जाये, वह वहीं रहकर अन्य राजकुमारों की
सेवा करेगा। गुरु द्रोण मान जाते है, अभ्यास स्थल के समीप वह
एकलव्य की कुटिया बनवा देतें है और उसे राजकुमारों के अभ्यास के बाद बिखरे हुए बाणों
को वापस तरकश में रखने का काम सौपं देते है ।
राजकुमार
एकलव्य छिप कर गुरु द्रोण की हर बात को, हर सीख को ध्यान से सुनता, सायं बाणों को सम्भाल कर तर्कश
में रखता और रात एकांत मे निकत अरण्य में तीर चलाने का अभ्यास करता ।
एक दिन अभ्यास जल्दी समाप्त हो जाने के कारण सभी राजकुमार समय
से पहले ही लौट गए। ऐसे में एकलव्य को धनुष चलाने का एक अदद मौका मिल गया। लेकिन
अफसोस उनके अचूक निशाने को दुर्योधन ने देख लिया और द्रोणाचार्य को इस बात की
जानकारी दी।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य को वहां से चले जाने को कहा। हताश-निराश
एकलव्य घर की ओर रुख कर गया,
लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि वह घर जाकर क्या करेगा, इसलिए बीच में ही एक आदिवासी बस्ती में ठहर गया। उसने आदिवासी सरदार को
अपना परिचय दिया और कहा कि वह यहां रहकर धनुष विद्या का अभ्यास करना चाहता है।
सरदार ने प्रसन्नतापूर्वक एकलव्य को अनुमति दे दी।
एकलव्य ने जंगल में रहते हुए गुरु द्रोण की एक मिट्टी की
प्रतिमा बनाई और उसी के सामने धनुष-बाण का अभ्यास करने लगा।
समय के साथ गुरु द्रोण और कुरु राजकुमार, निषाद राजकुमार एकलव्य को भूल गये
। गुरु द्रोण ने अर्जुन की प्रतिभा देख कर उसे वचन दे दिया कि वह अर्जुन को ब्रह्मांड
का सबसे बेहतरीन धनुर्धर बनायेंगे । पूरे ब्रह्मांड मे अर्जुन से बेहतर कोई दूसरा धनुधर
नही होगा ।
अनेकों वर्ष बीत गये, एकलव्य युवा हो गया । वहीं युवा कुरु राजकुमार वन
में शिकार करने पहुंचे । वन में राजकुमार एकलव्य अभ्यास कर रहा था ।
शिकार में आये राजकुमारों के साथ एक कुत्ता भी था जो भागते हुए आगे
निकल गया और वन मे एकल्व्य को देख कर जोर जोर से भौंकने लगा । अभ्यासरत एकलव्य का ध्यान
उसके भौंकने से भंग हुआ तो राजकुमार एकलव्य ने अपने तीरों से उसका मुह बंद कर दिया , बिना उसे चोट पहुंचाये ।
जब गुरु द्रोण ने यह देखा तो वह विस्मत हो गये । एकलव्य की जानकारी
ली तो एकलव्य ने उन्हे ही अपना गुरू बताया । गुरु द्रोण पहले तो आश्चर्यचकित हुए
लेकिन बाद में अपनी मिट्टी की मूर्ति देखकर एकलव्य को पहचान गए। अर्जुन, अपने गुरु द्रोण को ऐसे देखने
लगा जैसे उन पर हंस रहा हो, क्योंकि उससे बेहतर धनुर्धर आज
उसके सामने खड़ा था।
एकलव्य की प्रतिभा को देखकर द्रोणाचार्य धर्म - संकट में पड़ गए। लेकिन अचानक
उन्हें एक युक्ति सूझी। उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में उसके दाएं हाथ का
अंगूठा ही मांग लिया ताकि एकलव्य कभी धनुष चला ना पाए।
कुमार एकलव्य अपने अंगुष्ठ
के बलिदान के बाद अपने पिता राजा हिरण्यधनु के पास लौट गया। वहां बहुत अभ्यास से बिना
अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त करी। कुछ समय बाद उसका विवाह सुशील
निषाद राजकुमारी सुणीता से हुआ और दोनो के सयोंग से केतुमान नाम से एक पुत्र जन्म लिया
। उसका दूसरा विवाह अत्यन्त पतिव्रता रानी अन्ग्ग्रैनि से हुआ । रानी आन्ग्ग्रैनि की
पतिव्रता व्रत की कई मिसालें दी जाती है ।
पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य श्रृंगबेर राज्य का शासक बना । अमात्य परिषद की
मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करा,
बल्कि एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करी। अपनी विस्तार वादी नीती के
कारण उसने अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करा। महाराज जरासंध ने उससे मित्रता कर
ली और और पण्डव सेना के विरुद्ध एकलव्य को
अपना हथियार बनाया।
विष्णु पुराण और हरिवंशपुराण में उल्लिखित
है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर
आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद
जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य
को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।
जरासंध की मृत्यु के बाद , प्रतिशोध
लेने के लिये रजा एकलव्य ने द्वरका मे आक्रमण कर दिया । कुन्तिभोज को नष्ट करने के
बाद उसने द्वारिका के समस्त यादव सैनिकों का वद्ध कर दिया। उसके इस कारनामे से प्रसन्न
होकर दुर्योधन ने उसे अपना मित्र बना कर समस्त हस्तिनापुर के वन क्षेत्र का राज एकलव्य
को सौंप दिया ।
दुर्योधन के महाराज बनने के बाद एकलव्य उसका अभिन्न मित्र बन गया ।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों योद्धाओं को रोकने में
सक्षम था।
दुर्योधन ने एकल्व्य को श्री कृष्ण के पुत्र सांबा
का वद्ध करने का कार्य सौंपा। भयंकर युद्ध में उसका सामना श्री कृष्ण से हुआ । श्री
कृष्ण ने उसका सर एक बहुत विशाल शीला से फ़ोड दिया । इस प्रकार वह वीर गती को प्राप्त
हुआ ।
एकलव्य की वीरगती के बाद उसका पुत्र केतुमान गद्दी
में बैठा । महाभारत के युद्ध मे केतुमान ने कौरव सेना का साथ दिया । इसी युद्ध मे उसका
पुत्र महाबली भीम के हाथों वीर गति को प्राप्त हुआ ।
यह मान्यता है की एकलव्य ही ने पुनःजन्म लिया और द्रिश्तदुमन
कहलाया। इसी रूप मे गुरू द्रोण की मौत का कारण बना ।
ध्यान से देखे तो हमारा समाज कालचक्र के आधीन रहा
है । कभी कोई जाती उच्च और कभी कोई जाती। आत्मा कर्मों के आधीन रह कर जन्म लेती है
और सुख –दुख का भोग करती है । हिन्दु एक ही
है और रहेगा ।
आदेश आदेश
गुरू गोरक्ष नाथ को आदेश – सदगुरू को आदेश