संस्कारका क्या अर्थ है ? वे निर्माण कॆसे होते हैं ?
व्यावहारिक जीवनमें हम संस्कार इस शब्दका सम्यव् कृति अर्थात् अच्छे आचार, विचार एवं कृति इस अर्थसे प्रतीत करते हैं । अध्यात्मशास्त्रमें संस्कारका अर्थ चित्तमें अथवा अंतर्मनमें अंकित हुए विचार ऐसा होता है । अच्छी बातोंकी तरह बुरी बातोंके भी संस्कार होते हैं,
उदा. ईश्वरका नाम लेनेकी तरह ही गालियां देनेका भी संस्कार होता है ।
हमारा शरीर, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारकी प्रत्येक कृतिका एवं वृत्तिका अंतर्मनमें संस्कार होता है । इनमेंसे अधिकांश विचार कुछ पलमें अथवा मिनटोंमें ही नष्ट होते हैं,
उदा. सडकसे जाते समय हम अनेक लोग देखते हैं । रेलगाडीसे जाते समय हम अनेक शहर, गांव अथवा जंगलके दृश्य देखते हैं । पराए लोगोंके घरमें एवं रेलगाडीमें बाजूमें बैठे आदमीके साथ अनावश्यक संवाद करते हैं । भीडमें हमें अनेक लोंगोंका अथवा वस्तुओंका स्पर्श होता है । भीडमें हम नाकद्वारा अनेक प्रकारके सुगंधका एवं दुर्गंधीका अनेक बार अनुभव लेते हैं । अखबारमें अंतर्भूत अधिकतर निरर्थक समाचार हम पढते हैं; परंतु कुछ पलमें ही अथवा कुछ मिनटोंमें ही ये विचार हमेशाके लिए मिट जाते हैं एवं हमें उसकी याद भी नहीं रहतीr; परंतु हमारा देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि, अहंकारसे संबंधित होनेके कारण बाह्य वस्तु, व्यqिक्त, प्रसंग अथवा घटना हमारी यादमें अधिकांश समय, कुछ घंटे अथवा जीवनभर भी रहती है । ये यादें चित्तमें अथवा अंतर्मनमें अंकित हुए विचारोंकोें कुछ काल अथवा जन्मजन्मांतरमें चित्तपर रहनेवाले विचारोंको संस्कार कहते हैं ।
देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारसे संबंधित रहनेवाली कौनसी व्यक्ति, वस्तु, प्रसंग, घटना एवं अंतःकरणमें विद्यमान कौनसे विचार, इच्छा, वासना, अपेक्षा तथा निर्णयके संस्कार बनते हैं, यह नीचे स्पष्ट किया है ।
१. जिसके कारण हमें सुख अथवा दुख होता है । सुख उत्पन्न करनेवाली वस्तु एवं देनेवाली व्यक्ति हमें अपनी लगती है और दुख देनेवाली वस्तु एवं व्यक्ति इनके विचार करना भी पसंद नहीं करते । बुढापेमें व्याधीसे पिडीत दुख देनेवाला देह भी पसंद नहीं करते ।
२. जो वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग, घटना एवं विचारसे हमारी इच्छा तथा वासना संबंधित है ।
३. जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिससे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर संबंधित हैं ।
४. जिससे हमारा लाभ एवं हानि संबंधित हैं ।
५. जो वस्तु अथवा व्यक्ति हमें प्रिय एवं अप्रिय है ।
सडकसे जाते समय हम अनेक लोग देखते हैें; परंतु दोस्त अथवा दुश्मन मिलनेसे उसकी याद आती है ।
६. जिससे हम लेन-देन करते हैं । किसीसे उधार (कर्ज) लेनेसे अथवा किसीको उधार (कर्ज) देनेसे ।
७. जिससे हम तुलना करते हैं ।
८. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति एवं स्वयंका देह, इंद्रियं, मन, बुद्धि इन सबसे ‘मैं एवं मेरा’ ऐसा संबंध प्रतीत करते हैं । इसके अंतर्गत मेरा घर, मेरी पत्नि, बच्चे, रिश्तेदार, पडोसीr, दोस्त एवं दुश्मन भी आते हैं । उसी प्रकार मेरी पदवीr, संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य, मेरी आंखे, मेरे विचार, मेरा ज्ञान इत्यादि सबकुछ आता हैं ।
९. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिनके प्रति आसक्ति, माया, ममत्व निर्माण होता है ।
१०. जो जो वस्तु अथवा व्यक्ति जिससे कुछ अपेक्षा रहती है ।
११. जो वस्तु, स्थान अथवा व्यक्तिके प्रति हमें आदर होता है अथवा तिरस्कार होता है (घृणा वाटते)। पिताका अथवा देवताका छायाचित्र, हिंदुओंको काशी, मुसलमानोंको मक्का, खिश्चनोंको जेरुसलेम यह तीर्थक्षेत्र आदरणीय प्रतीत होती है । शिक्षक, संत, गुरुके प्रति आदर होता है । इसके विरूद्ध दुष्ट व्यक्ति, भ्रष्टाचारी व्यक्तिओंके प्रति मनमें तिरस्कार निर्माण होता है ।
१२. हमारी निंदा एवं स्तुति करनेवाली व्यक्ति ।
१३. वर्तमान कालकी ही नहीं, तो भूतकालसे संबधित कथाके रुपमें सुनी हुई साधु, संत, अवतार एवं राक्षस, पिशाच(भुत), दुष्ट व्यक्तिओंकी भी याद रहती हैं एवं संस्कार होते हैं । लगातार एकही बात दोहरानेसे उसका रूपांतर संस्कारमें होता हैं ।
इसका अर्थ देह, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारको पोषक तथा मारक वस्तु, व्यक्ति, प्रसंग एवं घटनाओंके संस्कार बनते हैं । वैसेही देह, ज्ञानेंद्रियं, कर्मेंद्रियं, मन, बुद्धि एवं अहंकारकी लगातार होनेवाली कृतिओंका एवं वृत्तिओंका भी परिवर्तन संस्कारमें होता हैं । ये संस्कार चित्तमें अर्थात् अंतर्मनमें विद्यमान उपरके स्तरमें (ेल्ंम्दहेम्ग्दल्े स्ग्ह्) अथवा अंतर्गत स्तरमें (ल्हम्दहेम्ग्दल्े स्ग्ह्) संग्रहित किए जाते हैं । ये संस्कार अर्थात् पहलेके सुख, दुख, राग, द्वेष, विविध मनोवृत्तीrसे संबधित एवं चित्तमें अर्थात् अंतर्मनमें संग्रहित यादें ।
हमारी सर्व कृति, इच्छा, वासना, विचार, अपेक्षा, आकांक्षा, भावना इत्यादि सर्व वृत्तिओेंके एवं कृतिओंके संस्कार बनते हैंैं एवं पुन: इन संस्कारोंका इच्छा, वासना, विचार, राग-द्वेष इत्यादिमें रूपांतर होता है । यह शृंखला लगातार चलती ही रहती है ।
आदेश आदेश
अलख निरंजन्
गुरू गोरक्षनाथ जी को आदेश