Saturday, 16 May 2015

कर्म के सिधांत







कर्म के सिधांत

जिन्दगी अपने आप मे एक पहेली है। एक ही परिवार मे जन्म लेने वाले अलग अलग किस्मत ले कर पैदा होते है ।

कोई दो भाई एक से सुख नही भोगते। परिवार के हर सदस्य की समझ, शारीरिक क्षमता, डर, ताकत, स्वभाव अलग अलग होते है।  



कौन यह फ़र्क डालता है ? क्यो हर आदमी अलग है? क्यो कोई गरीब परिवार मे जन्म लेता है, उस बच्चे की क्या गलती है जो अपंग पैदा हुआ? क्या गलती है उसकी जो किसी गरीब देश मे आभाव मे पैदा हुआ और उस बच्चे ने क्या करा जो अमीर परिवार मे जन्म लेता है और किसी सम्पन्न देश मे जन्म ले कर सिर्फ़ सुख भोगता है ?

क्यो कोई बच्चा कैन्सर जैसे रोग ले कर पैदा होता है और अपने पांचवे जन्म मे मर जाता है? क्यो कोई दुर्घटना मे घायल होकर हमेशा के लिये अपंग हो जाता है और कोई साफ़ बच जाता है ?  

सबसे विद्वान विद्यार्थी अच्छी जिन्दगी नही जी पाते जबकी किसी को अचानक धन मिल जाता है ।
यह किस्मत क्यो सबके साथ नही रहती और सबसे बडी बात की यह किस्मत है क्या ?
इन्सान जन्म ही क्यो लेता है और दुख क्यो है । हर इन्सान मे इतना फ़र्क किसलिये है ?

क्या मौत के बाद सब खत्म? अगर ऐसा है तो फ़िर जिन्दगी के मायने ही क्या है?

यह अच्छा-बुरा क्या है । क्या इस फ़र्क के लिये भगवान जिम्मेवार है । उसने किसी को राजा और किसी को रंक बनाया ? भगवान ने किसी को किस्मत बांटी और किसी को कुछ नही दिया ? किसी को बिमारी दी और किसी को कमजूरी । किसी को सुंदरता दी किसी को कुरूपता ? पर किसलिये ? किसी को शक्ती दी और किसी को कमजोर बनाया ।







आओ समझे यह फ़र्क किसलिये

हिन्दू शास्त्र इसका जवाब देते है । इसका कारण कर्म को मानते है । आज हम कर्म के सिद्धांत को समझेंगे । कर्म को समझेंगे हिन्दु शास्त्र के द्वारा ।
हिन्दु मानते है की हर शरीर मे एक आत्मा का वास है । शरीर खत्म होता है पर उसमे रहने वाली आत्मा नही । इस आत्मा को बनाया नही जा सकता और ना ही नष्ट किया जा सकता है । आत्मा पुराना शरीर छोड कर नया शरीर धारण करती है । यह आत्मा अपने साथ अपने अच्छे-बुरे कर्म अपने साथ ले जाती है एक जन्म से दूसरे जन्म तक ।

हम जन्म लेते ही क्यो है !!!!

इन्सान के जन्म लेने के दो मुख्य कारण है । एक तो उसे अपने लेन-देन के हिसाब पूरे करने है दूसरा अपनी आत्मा को शुद्ध करके परमात्मा के कुछ और करीब आना है । वह अपने हर जन्म मे आध्यात्म की तरफ़ बढ्ता है । उसे हर जन्म मे पिछले जन्म से अच्छा इन्सान बनना है और ह्रिदय मे जीव मात्र के लिये और कुदरत के लिये प्रेम बढाना है । अगर किसी जन्म मे वह गलती करता है तो फ़िर अगले जन्म मे कुछ पीछे चला जाता है ।

कर्म के सिद्धांत कहते है:-  

हर अच्छा कार्य, इशारा, सोच एक पुण्य की सरंचना करती है और बुरा कार्य इशारा या सोच एक पाप की सरंचना करती है । इसी पुण्य और पाप का फ़ल मनुष्य की किस्मत या जिन्दगी बनाता है ।   

पुण्य की सरंचना
पाप की सरंचना
जब भी इन्सान अच्छा कार्य, सोच या इशारा किसी के लिये (इन्सान, जानवर, कुदरत, वनस्पती या कीट) करता है तो वह कार्य पुण्य के नाम से जमा हो जाता है
कोई भी बुरा कार्य, सोच, इशारा किसी और के लिये (इन्सान, जानवर, कुदरत, वनस्पती या कीट) के लिये होता है तो यह पाप के नाम से जमा हो जाता है ।

पुण्य इन्सान को खुशी की तरह से वापस आता है (यह धन्यवाद के अतिरिक्त है)
पाप दुख के रूप मे (माफ़ी मांगने से कर्म समाप्त नही होता) वापस आता है ।

कर्म के सिद्धांत अचूक है । इससे कोई नही बच सकता । हर कार्य का जवाब मिलता है । कोई सोच, कार्य, इशारा व्यर्थ नही जाता । पाप या पुण्य के रूप मे जमा हो जाता है । समय आने पर अपना प्रभाव दिखाता है ।  

 सारी जिन्दगी हम पुराने लेन-देन पूरे करने मे या फ़िर नया लेन-देन जमा करने मे बिताते है । जो इस जन्म मे पूरा नही कर पाते उसे अगले जन्म के लिये छोड देते है ।

क्योंकी कर्म अगले जन्मो तक जाते है इसलिये किसी भी जन्म मे आत्मा कोई भी शरीर धारण कर सकती है । कोई भी लिंग (स्त्री या पुरुष) या कोई भी जाती । इस जन्म के दुश्मन अगले जन्म मे पती-पत्नी या पिता-पुत्री या कुछ भी बन सकते है। इस जन्म मे रिश्देदार अगले जन्म मे पडोसी या फ़िर दुश्मन या आपस मे अंजान भी हो सकते है । इस जन्म के पती-पत्नी अगले जन्म मे प्रेमी हो सकते है ।




हम पिछ्ले जन्म के कर्म भूल जाते है । अगर ऐसा नही हो तो पिछ्ले जन्म के शत्रू अगर इस जन्म मे पिता-पुत्र बन गये तो पिता को अपने पुत्र को पालना मुश्किल हो जायेगा और कर्म के लेन-देन पूरे करने मे कठिनाई हो जायेगी ।

आओ अब कर्म को समझते है –

सबसे पहले तो यह समझ ले की कर्म के सिद्धांत किसी को सजा देने के लिये नही है। यह तो सीख और समझ देते है । इन्सान कभी भी अपने कर्मो के फ़ल से बच नही सकता । हर जन्म मे वह कर्म कमाता है और प्रत्यक्ष जन्म मे या किसी अन्य जन्म मे भुगता है । 





मान लो की आत्मा जन्म लेने वाली है ।
अगर ऊपर इन्कित छडी हमारे कर्मो का प्राय है तो नीला भाग वह है जो कर्म हमने इस जन्म मे भुगतने है ।



नक्षत्र यह निर्णय करते है की आत्मा को कहा जन्म लेना है। उसे क्या-क्या भोगना है। उसे धर्ती के किस स्थान मे पैदा होना है। उसे सूखे की स्थिती देखनी है या युद्ध की स्थिती या फ़िर शान्ती से जीवन व्यापन करना है । इस प्रकार से उसे किस कोख से जन्म लेना है। उसके कौन रिश्तेदार होंगे और कौन मित्र । उसका किस-किस से कर्मो का लेन-देन है।

उसका जन्म का समय उसका प्ररारब्ध बनाता है । उस समय नक्षत्रो की स्थिती उसके सारे जीवन का निर्णय कर देती है। इस प्ररार्ब्ध की शिक्षा ही ज्योतिष है। हिन्दु ज्योतिष शाष्त्र की शिक्षा से इन्सान का भविष्य बताते है । उसने क्या-क्या कष्ट झेलने है, उसकी आमदनी कैसे होगी, वो कैसा दिखेगा, उसकी ताकत और कमजोरी, उसका अच्छा-बुरा समय इत्यादी। 

जीवन पहले से ही तय है। इसलिये बहुत सी घटनाये हमारी इच्छा से नही होते। इसी को भाग्य कहते है। उसके दुख, खुशी, मिलना-बिछडना, विजय, हार, बिमारी, दुर्घटनाये, अमीरी-गरीबी, धोखा, बेइज्जती, सम्मान, आय के साधन इत्यादी …. सभी भाग्य के अधीन है।

हिन्दु मानते है की इस कलियुग के समय मे तीन तिहाई जिन्दगी भाग्य के अधीन है और एक तिहाई इन्सान की अपनी इच्छा के अधीन। यह एक तिहाई और कर्म कमाती है जिसे अगले जन्मो मे भुगतना है। तीन तिहाई तो पुराने कर्मो का ही हिसाब है।

इन्सान अपनी जिन्दगी का खुद ही मालिक है। वह खुद ही अपनी जिन्दगी को अच्छी या बुरी बनाता है । पुर्वजन्म और दोबारा जन्म हिन्दु विचारधार का अधार है। और कर्मो के सिद्धांत इस विचारधारा को बल देते है। भगवान इसमे हस्त्क्षेप नही करते। 


यह धरती एक बडी प्रयोगशाला है जहा आत्मा बहुत कुछ सीखती है । अपने लालच को, क्रोध को, स्वार्थी स्वभाव को, अहंकार और गर्व को वश मे करना सिखती है । जन्म दर जन्म यह प्रयोग चलता है और आत्मा तरक्की करती है । अगर किसी जन्म मे इन्सान गलती करता है तो अगले जन्म मे वह और पीछे से फ़िर से शुरू करता है । हजारो जन्मो के बाद आत्मा आध्यात्म के करीब आती है और मोक्ष की अधिकारी हो जाती है। यह तब होता है जब हम अपने विचार, वाणी , कर्म इत्यादी के फ़ल भुगत चुके होते है और आगे गलती नही करते। 

कर्मो के प्रकार

प्रारब्ध कर्म
यह वो कर्म है जो इन्सान अपने जीवनकाल मे भुगतता है ।
सन्चित कर्म
यह वह कर्म है जो अभी जमा है और अभी उनका भुगतान शेष है । यह कर्म तो उन अनभुगते कर्मो का पहाड है जो अपना हिसाब होने की इन्तजार मे है
सन्चित कर्मो का हिसाब करने के लिये आत्मा किसी जानवर, कीट, पक्षी, या इन्सान के रूप मे जन्म ले सकती है। उसका जन्म अमीर, गरीब पापी या धर्मात्मा के परिवार मे हो सकता है। विकलांग या स्वस्थ्य, कुरूप या रूपवान, जैसे कर्मो का भुगतान करना है वैसा ही जन्म और वैसा ही प्रारब्ध या भाग्य



अगामि या सन्चियम कर्म
वो कर्म है जो इन्सान जीवन काल मे कर रहा है और उनका भुगतान शेष है ।
यह कर्म वह है जो इन्सान अपने संस्कारो के अधीन या इच्छा के अधीन होकर करता है। इनका भुगतान उसे उसी वक्त, कुछ दिनो-महीनो या सांलो मे करना है। जो हिसाब बच जाय उसे किसी अगले जन्म मे करना है।

अच्छे-बुरे कर्म दिमाग मे संस्कार और वासनाये बन जाते है और कर्मो के भुगतान के समय उजागर होते है। यह कर्म बीज बन कर सूक्ष्म देह स्थापित होकर कई जन्मो तक भुगतान होने तक रहते है। स्थूल शरीर कर्मो के असर को भुगतता है और अपने अनुभव के अनुसार और कर्म करता है ।  

सारी जिन्दगी स्थूल शरीर कर्म करता रहता है । कुछ कर्म उसके भाग्य के अनुसार होते है कुछ संस्कारो के कारण। इसके अलावा बहुत से कर्म उसकी अपनी इच्छा से होते है। जो कर्म भाग्य के अलावा हुए है इन्सान उन सभी कर्मो का जिम्मेवार है। उन कर्मो के फ़ल उसे उसी वक्त, कुछ सालो मे या अगले जन्मो मे भुगतने ही पडेंगे।
बस इन्सान अपने प्रारब्ध के कर्मो का फ़ल नही भुगतता। यह कर्म तो वह अपने पुराने कर्मो का हिसाब है।

नियम साफ़ है -


 आप अपना अच्छा करते है दूसरो का बुरा करके तो आप ने पाप कमाया।

आपने अपना अच्छा करा और दूसरो का भी अच्छा करा तो आप पुण्य के भागिदार है ।

कोई भी बुरा विचार जो दूसरो को तकलीफ़ दे उससे बचे। कोई ऐसा शब्द जो तकलीफ़ दे, कोई ऐसा कार्य जो तकलीफ़दायक हो उससे बचे। सिर्फ़ इन्सान को ही नही, बल्की कुदरत को, कुदरत के भन्डारो को, वनस्पती को, जानवर को कीट को, सभी को । सभी तकलीफ़ देने वाले कार्य पाप को जन्म देंगे और फ़िर किसी समय भुगतना भी पडेगा।

अब इच्छाओ और लगाव के बारे मे बात करे –

अश्टवक्र और राजा जनक का वर्तलाप और श्री क्रिष्न और अर्जुन का वर्तालाप और बाद मे गौतम बुद्ध के कथन पर आधारित
इच्छाये ही दुख की कारण है। इच्छाये वासनाये जगाते है और लगाव का कारण बनता है । यह कर्मो को जन्म देते है और कर्म जन्म पर जन्म लेने को बाध्य करते है। तो मूल कारण मन की इच्छाये ही है। लगाव सिर्फ़ कर्तव्य तक ही होना चाहिये। यही लगाव कई बार जन्म का कारण बन जाता है।
सम्भोग
भोजन
सम्भोग कई कर्मो का हिसाब करता है और उन्हे नष्ट करता है अगर अपने जीवन साथी के साथ करा जाये । यह जीवन साथी के साथ के लेन-देन को खत्म करता है । लेकिन अगर यह अवैध रिश्तो का कारण बने तो बहुत से कर्मो को जन्म देता है । कई बार भाग्य ही कारण बनता है अवैध सम्बन्धो का। भाग्य जनित कर्म पुराने लेन-देन को स्माप्त कर देते है और नये कर्मो का कारण नही बनते। पर ज्यादातर दबी इच्छाये, वासनाये और लालच इन सम्बन्धो का कारण बनते है। यह सम्बन्ध बहुत से कर्मो को जन्म देते है जिनके हिसाब के लिये कयी जन्म लेने पडते है।  
भोजन भी कर्मो का जन्मदाता है। इन्सान को जीने के लिये खाना चाहिये ना की खाने के लिये जीना चाहिये। इस म्रित्युलोक के नियम के अनुसार “हर जीवित चीज दूसरी जीवित चीज को खा कर ही जीवित रहेगी”। शाकाहारी भोजन सबसे कम कर्म जनित करता है। इसलिये इन्सान को शाकाहारी ही रहना चाहिये। मांसाहार, मदीरा इत्यादी बहुत अधिक कर्म जनित करते है। शाकाहार ही उत्तम भोजन है और सबसे कम कर्म जनित करता है।  


हिन्दुओ ने कई तरीके बताये है कर्मो को अनुकूल करने के -


१.  क्षमा – क्षमा मे बहुत शक्ती है। ना सिर्फ़ उनको क्षमा करे जिनने आपका अहित करा है बल्की खुद को भी। अपने गलत कार्य को भी क्षमा करे और अपने भगवान के सामने अपने कार्य को समर्पित कर दे ।
२.  सेवा – निश्काम सेवा कुदरत के लिये, इन्सानो के लिये, जानवरो के लिये, वनस्पती के लिये, और किसी कमजोर और जरूरतमंद के लिये। रास्ते साफ़ करे, भन्डारो मे बरतन साफ़े करे, जानवरो और वनस्पती की रक्षा करे, अपनो की सेवा करे। कुत्ते और गाय की सेवा का अपना ही महत्व है। कुदरत के भन्डारो की रक्षा कर (जैसे जल व्यर्थ ना बहाये) । य़ह सेवा है। जिस रूप मे भी करो कर्मो की भीषणता मे राहत देगी। 
३.  जप और प्रार्थना- प्रार्थना जप और ध्यान का अभ्यास करे। प्रार्थना शक्ती देती है, जप और ध्यान कर्मो को जला देते है। अपने धर्म के हिसाब से यह कार्य करे।
४.  तीर्थ - धार्मिक स्थलो की यात्रा करे और सेवा करे। यह कार्य निष्काम करे।
५.  इस बात को समझे की बुरा वक्त और बुरी किस्मत सिर्फ़ किसी आपके ही द्वारा किये कर्म का नतीजा है। उसे सजा मान कर बीतने दे। शांत रहे और आगे के कर्मो का ध्यान रखे।
६.  चरित्रवान बने। हर कार्य कर्मो का ध्यान रख कर ही करे। सच का साथ दे।
७.  त्याग – त्याग प्र्याच्छित का ही दूसरा नाम है। त्याग से कर्मो का हिसाब बहुत जल्दी हो जाता है। एक दिन का भोजन त्याग (व्रत) भी प्र्याच्छित ही है। किसी के लिये अपना सुख और अपने समय का त्याग भी प्र्याच्छित है। जब त्याग चरम पर पहुंचता है तो वह तपस्या बन जाता है।   
८.  परिवार की और समाज के दायित्व का इमानदारी से निर्वाह भी कर्मो की तीव्रता को कम करता है।




इन्सान दूसरे की नजर मे बेहतर बनने की बजाये अपनी नजर मे 

बेहतर बनने का प्र्यास करे।

कर्मो की महत्वता को समझे और अपनी जिन्दगी का व्यापन करे। 
यह कर्मो के सिद्धांतो की समझ इन्सान को चरित्रवन बनाती है। 

.अपराध से, हत्या से, कुदरत के विनाश से, चरित्रहीनता से बचाती 

है। इस धरा को सुन्दर और शान्त बनाने के लिये कर्मो की 


जानकारी जरूरी है। जो कुदरत के भन्डारो को बर्बाद करता है वह 

अगले किसी जन्म मे उस भन्डार की कमी सहता है (जैसे जो 

जल 


बर्बाद करता है वह अगले किसी जन्म मे रेगिस्तान मे पैदा होकर 

जल की बून्द-बून्द को तरसता है) महान हिन्दु सन्तो ने कर्म के 

सिद्धन्तो से अवगत करवा कर एक सम्रिद्ध जीवन की नीव रखी है




आदेश आदेश अलख निरन्जन 

गुरू गोरक्षनाथ जी को आदेश